तिरछी-तीखी बौछार से
पहली बरखा की
होती है जैसी सिहरन
प्रकृति के पोरों को / तृणों को
बदल जाती वह सिहरन गंध में
बौराती / तपते पवन को
वैसी ही होती है सिहरन
जब तुम्हारे केश / होकर आज़ाद
देने लगते हैं दस्तकें
छुप कर / मेरी पीठ पर
और गंध बन जाती है विश्वास
आसपास आ गई हो तुम
पास से पास
नहीं, शायद
उससे भी ज्यादा / अनाम सिहरन
बरखा की सिहरन तो
उतरती धूप है
और तुम्हारी
धूप है चढ़ती / इस ठिठुराये समय में
बदल गये मायने
आँच के
छुआ दीप / सेंकी सिगड़ी
उचक्कों सा लकड़ी चुरा कर
समय से आँखें बचाकर
ली खूब / आँच फागुन की
सदैव तुम्हारी दहकन के रहा
करीब से करीब
जो पिघला देती है / उद्विग्नता के पहाड़ों को
आँच तुम्हारी विचित्र
शीतल जल जैसे बुझाती प्यास को
नहीं, शायद
उससे भी ज्यादा / अनाम आँच
मन में सरन्ध्र बना
गंध बन भिद जाती है / बिसराये समय में
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