Monday, February 25, 2008

सिहरन की आँच 70

तिरछी-तीखी बौछार से

पहली बरखा की

होती है जैसी सिहरन

प्रकृति के पोरों को / तृणों को

बदल जाती वह सिहरन गंध में

बौराती / तपते पवन को


वैसी ही होती है सिहरन

जब तुम्हारे केश / होकर आज़ाद

देने लगते हैं दस्तकें

छुप कर / मेरी पीठ पर

और गंध बन जाती है विश्वास

आसपास आ गई हो तुम

पास से पास


नहीं, शायद

उससे भी ज्यादा / अनाम सिहरन

बरखा की सिहरन तो

उतरती धूप है

और तुम्हारी

धूप है चढ़ती / इस ठिठुराये समय में


बदल गये मायने

आँच के

छुआ दीप / सेंकी सिगड़ी

उचक्कों सा लकड़ी चुरा कर

समय से आँखें बचाकर

ली खूब / आँच फागुन की


सदैव तुम्हारी दहकन के रहा

करीब से करीब

जो पिघला देती है / उद्विग्नता के पहाड़ों को

आँच तुम्हारी विचित्र

शीतल जल जैसे बुझाती प्यास को


नहीं, शायद

उससे भी ज्यादा / अनाम आँच

मन में सरन्ध्र बना

गंध बन भिद जाती है / बिसराये समय में

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