Monday, February 25, 2008

नज़रबंद 67

तुम सितारा

और मैं ज़र्रा



जन्मजात होती है गूँगी, पीड़ा भी

निर्वासित साँस-साँस, चुभती सी

थक-थक कर खुलती हैं, आकुल आँखें

रुक-रुक कर आशा की हिलती हैं, पीड़ित पाँखें

तुम किनारा

और मैं दर्रा



ज़माने भर को जतलातीं, कुछ दबी बातें

अकेले में न बतियातीं, स्थगित हैं सभी नाते

मेरा पाषाण का दिल है, तुम्हारी फूल सी बातें

कितना द्रवित है दिल मेरा, बताती रोज हैं रातें

तुम शिकारा

और मैं जज़ीरा



हवाओं ने कर दिया, मुझको नज़रबंद

सौ-सौ पहरों में है कैद, तेरी हर एक गंध

स्पर्श सो रहा है अब, भूल सारे अनुबंध

अपनी निराकार ही रही, अनकही सौगंध

तुम लिफाफा

और मैं लापता

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