Monday, February 25, 2008

वक्त की कल्पना 61

जरा कल्पना करो

उस वक्त की

जब हवा न चले

न हिले

एक भी पत्ता

जहाँ तक जाती है नज़र

वहाँ तक



घुटने लगती हैं साँसें

सब कुछ लगता है

मानो थम रहा है सब कुछ

क्या प्रलय का

होगा कोई और रूप



जरा कल्पना करो

उस वक्त की

तुम नहीं आतीं नज़र

जहाँ तक जाती है नज़र

वहाँ तक

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