जोड़ों में दिखें
दाना चुगते परिन्दे
न ललचाये मन
धूप सेंकने
सकुचायंे लिहाफ़ों के
साज़िन्दे
गुनगुनाहटें
गुनने लगें वन
महकने लगे
सूरज का यौवन
रक्ताभ हो
वृक्षों से झाँके
चन्द्रमा
कपोलों पर लगे दौड़ने
लालिमा
टूटने लगे
नींद की एकासना
मुहूर्त की दस्तकें
हो विदेह की
उपासना
गोद में छिपाकर
दिन भर की धूप को
फिरने लगे
नमी की गंध
बगरो है बसंत
ले लो
पद्माकर की सौगंध
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