Monday, February 25, 2008

पलों के पहाड़ 5

न जाने कितनी

पूख्रणमाओं के बाद

चाँदनी फिर खिली

एक और बार



उड़ा गगन में

एक पंछी

डैनों की हिलोर

स्तब्ध हृदय में

प्रतीति थाप सी

आशाओं में उमड़ा

फिर से ज्वार



रागिनी फिर सजी

एक और बार

न जाने कितनी

पूख्रणमाओं के बाद



थिरकी भावना भी

ठिठकी थी रूप सी रूपसी

सारे ही दृश्य

हो गये अदृश्य से

बिखरी थी वातायन में

एक गंध निर्गंध भी



रातरानी सी महक गई

एक और बार

न जाने कितनी

पूख्रणमाओं के बाद



उड़ी सुधियों पर

सदियों की जमी गर्द

पर्त-दर-पर्त

काटे हैं कितने ही

पलों के पहाड़

भाषाओं में सिमटा

कितना ही दर्द



जिन्दगी जी ली

एक और बार

न जाने कितनी

पूख्रणमाओं के बाद

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