Monday, February 25, 2008

बात एक रात की 57

उस रात / विमुग्धा की बाँहें

और मेरी बाँहें

अनुभूतियाँ दोबारा

मन जीना चाहे



बरखा भी रुकती सी आती

बूँदों पर कनखी / चंदा की

कुछ उजियारा / कुछ अँधियारा

कुछ बदली छाई तेरे बालों की

उस रात / विगलित दर्प का प्रकाश

और मेरी राहें



पहरों मौन / पहरों बातें

दुनिया से बाहर / जीवितों में / न समाते

पार / समय की सीमा के पार

मिलन के स्थिर कालखण्ड में

क्षण भर की बिछुड़न / मन / अकुलाते

उस रात / कल्प वृक्ष था बाँहों में

और मेरी चाहें



खब़र / हवा तक को न थी

न बही थी बात / बहारों में

न तो जाना / झिलमिल-झिलमिल तारों ने

हम हो गये थे अकेले / हजारों में

न रखी कोई जात / गुमनाम हो गये

उस रात / नदी थ तुम

और मेरी बाँहें

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