Monday, February 25, 2008

मुझे निहार लो तुम 56

निमीलित / जैसे

पोखर पर पड़तीं रश्मियाँ

खेलतीं खिल-खिल

चौंधियाने वाले पल

आँखों को मन की

दिखलातीं अँधेरा

उनकी राह सींचते बादल

किया है जिन्होंने स्वागत समय का



निर्लिप्त / जैसे

सूरज और चाँद

बसंत और ठूँठ

मिल जाये मन को स्पर्श मन का

अनुराग की सुगन्ध लिये

जल प्रीति का

क्या हुआ / फ़ासिल हैं ज़माने के

खिल जायेंगे



नि:संकोचिका / जैसे

बयार हो

नगाड़े बजाती आतीं

या फुसफुसाहटें

कभी थम जाती हो / ऐसे भी आती हो

मेरी आँखों पर रखतीं

चुपके से / फोहे सी अँगुलियाँ

बिखर जायेगा अणु-अणु

एक बार फिर / आँखें बंद कर

मुझे निहार लो तुम

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