Monday, February 25, 2008

प्रेम का घरौंदा 48

जितनी अनुरक्ति है तुम्हें

कविता से

उतनी शक्ति कहाँ मुझमें

कि जोड़ता रहूँ दुनिया के लिये

कुछ न कुछ नया-नया

रचता रहूॅं निरन्तर

कुछ न कुछ नया-नया

शब्दों को चुन-चुन कर

विचारों को बुन-बुन कर

भावों को गूँथ-गूँथ कर

बनाता रहूँ

कभी न पूरा होने वाला

प्रेम का मकान



जितनी अभिव्यक्त होती है

तुमसे कविता मेरी

जितनी मुखरित होती हो तुम

साथ कविता के

मैं उतना ही ज्यादा

लगता हूँ चिढ़ने

अपनी रचना से / अपनी कविता से



ओ सदाबहार गंध

कमलो की घाटियों से

तैर कर आतीं

मेरी कविता के प्रत्युत्तर में

इतनी मेरी सामर्थ्य कहाँ

बुन सकूँ जाल कोई शब्दों का

तुम्हारी गंध को सिर्फ अपने लिये

बंद कर सकूँ / किसी इत्रदान में



नहीं समझ सका प्रेम को

आज तक

कहाँ समझ सका आज तक

कविता के आकाश को



दूर से देखती हो तुम

आकाश में एक से

नजर आते हैं तारे

तुम्हारे बालों में गूँथने

लाया हुआ तारा

रोज-ब-रोज लगता है तुम्हें

वही तारा / दुहराया हुआ

तुम्हें दिखती है स्नेह की जलधार

झर-झर बहती कविता की निर्झरणी



पत्थर का दिल है मेरा

चलो माना

देखो जरा

झाँक कर दिल में

जितने आकाश में तारे

उतनी ही हैं दिल में दरारें



आँखों के रास्ते

जरा उतरो दिल में

जीवन का अमृत है वहीं

अमर करता रहता है जो

तारों को, कविता को

और इस तरह अन्तत: जनमता है

प्यार, प्यार और सिर्फ प्यार

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