Monday, February 25, 2008

सुन रही हो ना!? 45

अपने बीजों के साथ



कहाँ उड़ पाता है वृक्ष

जड़ों से उखड़ना

अमर्यादित है और प्रकृति-विरूद्ध भी

वृक्ष पर कभी नहीं अंकुराता बीज

बीज में छिपा होता है वृक्ष

जुड़े रहना होता है धरती से

करना होता है स्वीकार / धर्म धरणी का



सुन रही हो ना!?



अँकुराता है बीज

नई कोख में / नई गोद में

सबसे कट जाना होता है

स्वयं एक वृक्ष बनने

इस स्वाभाविक स्वायत्त सफ़र में

नई राह पर / नई डगर में

तुम कहाँ / किस ठौर पर ठिठकोगी

कब तक और कहाँ तक करोगी

छाया आँचल की

कब छोड़ोगी अँगुली बचपन की



सुन रही हो ना!?



वाष्पित हो अश्रु ही तो बरसते हैं

पहुँचते हैं और बीज तक

एक बार अँकुराया था तुमने दूध से

अब अँकुराती हो टपका कर बूँदें

उस रंगहीन दूध की

माता के मन के स्तनों से जो

होता है नि:सृत

उसी तपिश से / उसी नमी से

जुड़कर धरती से बनो समानधर्मा



सुन रही हो ना!?



सही है, कई बार अनुभूत की है तुमने

माँ होने की पीड़ा

इन लहरों ने बारबार टक्कर दी है

मेरी छाती पर

जिसमें छिपा है एक दिल

हजारों स्पन्दनों को सँवारता

और हर हाल में वह है

धड़कने में व्यस्त



सुन रही हो ना!?



ममता के धागों के छोर नहीं होते

हम तो हैं इसके रेशे-रेशे

एक दूसरे से लिपटे-लिपटे

किसे पता, कितने लम्बे / कितने छोटे

हम कहाँ तय करते

क्या हो भूमिका अपनी

नहीं होता है सरल पीठ फेरना

दीपक से हटा पाना पल्लू

सचमुच यह सब है

शिव की तरह गरल पीना

जीवन के विष-अमृत

हमने साथ-साथ, मिल-बाँट पिये



सुन रही हो ना!?



अपनी अँजुरियों से अपने प्राण

अपने सपने

मर्मान्तक होता है विलग करना

अपनों से अपने

इसी शौर्य की कामना है तुमसे

बस शेष यही चाहना है तुमसे

यही तुम्हारी स्वाभाविकता है

माँ तो होती ही है / विलक्षणकर्मा



सुन रही हो ना!?



मैं तुम्हे घेरे रहता हूँ हवा सा

जीवन मेरा / तेरा

अवलम्बित है तुझ पर / मुझ पर

साध साथ की

साँस चार ही

यही जीवनगत्या प्रेम है

हवा सा दिखता नहीं है

तुझ सा / हिलता नहीं है

भागता रहता हूँ मैं आदि-अन्तत:

तुम्हे रहने घेरे अपने बाहुपाश में



सुन रही हो ना!?



भटकता हूँ आकाशों-आकाशों में

जंगलों में तैरता हूँ

सागरों में डूबता हूँ

चोटियों पर सूखता हूँ

तुम्हारे लिये जरा से सुख की तलाश में



सुन रही हो ना!?



तुम्हारी मातृत्वता के अमृत से

अँकुराना चाहता हूँ सन्देश-बीज

ताकि बिखरा सकूँ शब्द-बीज

पहुँचा सकूँ उन सभी तक

जिनके बंद हैं कान, पर आँखें खुलीं

सहधर्मिणी! टेरता रहता हूँ मैं तुम्हें

कितनी हो गई बारिश

तुम कुछ नहीं बोलीं



सुन रही हो ना!?

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