Monday, February 25, 2008

अप्राप्य पत्र 40

पलट रहा था पत्र तुम्हारे

जो तुमने कभी लिखे ही नहीं

फिर भी पढ़े गये द्वारा मेरे

आज की तरह / कई बार

लगभग रोजाना



थोड़े से शब्दों के ये

लम्बे-लम्बे पत्र

इतना बताते हैं अवश्य

कि पूरी ही नहीं होती बात

तुम्हारी-मेरी

और क्यों,

पढ़ता रहता हूँ पत्र तुम्हारे

इतनी-कितनी बार



खुशबू जम कर बैठी है इनमें

अपना पूरा कुनबा लेकर

साथ साँस सी फिरती है वह

मन की ज़ेबों से झाँकती

कुछ अनिश्चित-निश्चित समयों पर

और क्यों,

घूमती रहती हैं कल्पनायें

इस द्वार - उस द्वार

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