Monday, February 25, 2008

अभिव्यक्ति का संकट 15

क्या बताऊँ

शब्द नहीं हैं

अभिव्यक्त करने को

क्या था अहसास

जब टपके थे आँसू तुम्हारे

होठों पर मेरे



क्या बताऊँ

देह होती है गर्म

पर सर्द रातों में

गुनगुने लिहाफों में

कुछ अधिक गर्म

लगती है देह

जैसे कुनकुने पानी से

सिक रही है देह

दिल, दिमाग और आत्मा तक



क्या बताऊँ

भरपूर नज़र भर

देख लेने की कोशिश

कुछ और नजर नहीं आता

न दुनिया न दीन

खुद भी खोता जाता

लगता जैसे थम गया सब कुछ

स्थिर हो गई धरा



क्या बताऊँ

रसोईघर से आती

कई मिली-जुली गंध

फर्क साफ समझ में आता

घर में होने और न होने का

छलक जाता मन

घर में होने और न होने पर



भर लो मन

जीवन के रंगों से

सजा लो आल्बम

खट्टे-मीठे प्रसंगों के

स्मृतियों के आवरण में



साँझ जब खेवेंगे

जीवन की नैया

जब टहलेंगे साथ

या छूट जायेगा साथ

इस दुश्चिन्ता की व्याकुलता



क्या होगा अहसास

कैसे करूँ व्यक्त

शब्द नहीं हैं

अभी जीवन के पास

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