सोचता हूँ
तुम पर भी कुछ लिखूँ
छुआ धरती को
धरती बैठ गई
कलम की नोंक पर
बाल पेन की बाल
बन गई धरती
धरती से ही बात शुरू की
धरती तब तक बैठी रहेगी
मेरी कलम की नोंक पर
जब तक पैर नहीं छोड़ देंगे
धरती
सहलाया नदियों को
नदी समा गई
स्याही बन कर
लगातार पझरने के लिये
नदियों में डूबा, पैठा, उतराया, तैेरा
कविताओं में उतनी ही
आई नदी
जितनी हैं धरती पर
नदियाँ
निहारा आकाश को
आकाश बन गया कागज
धरती और नदियों को
दिखता छूता सा
झूठा मुझ जैसा
और नश्वर भी
आकाश पर ही लिखा
आकाश पर
दिल लगाया चिड़ियों से
उड़ने लगीं वे
मेरी कविता के जंगल में
मुझे एक से लगते पखेऱू
रोज मिलते हैं मुझसे
मेरे आंगन में
आखिर मेहमान होते हैं
कुछ चहक/फुदक कर
हो जाती हैं फुर्र चिड़ियायें
मैं जड़ लेता हूँ उनकी छवियाँ
अपने रचना संसार में
आकाश में दिखते पर
दूर बहुत दूर
झिलमिलाते तारों की तरह
जब भी उगता है आशा का सूरज
आ जाता हूॅं अपने आंगन में
स्वागत करने
आयेगी जरूर एक दिन
मेरी स्वप्निल चिड़िया
सुुलझाया फूलों को
सँवारा कुछ अपने आस-पास को
प्रकृति को
ये सब होते हैं कैद
मेरे शब्दों की जंजीरों में
अनहत, अविनाशी शब्द
रखते हैं छुपाये अपने भीतर
ध्वनि का एक अद्भुत संसार
फूल घुसपैठ कर गये
मेरे बाहर, मेरे अंतस में
मैंने भी गंधों पर
उनसे कर लिया समझौता
घुसने का मिल गया परवाना मुझे
शब्दों के भंडार में
सब से न्याय किया
लिखा सब पर
सोचा
लिखूँ कुछ तुम पर भी
तुमने सचमुच
बहुत आसान किया है
इस कठिन समय में
जीना मेरा
सच बतलाना
जो कुछ लिखा आज तक मैंने
तुम पर ही
नहीं लिखा ?
No comments:
Post a Comment