Monday, February 25, 2008

शरद-पूनो की रात 8

तेरी दहकाई रोशनियों में

गुम हो जाती है

चाँदनी मेरी



वो भी शरद-पूनो की रात



मेरा वश चले तो

बुझा दूँ सारी बत्तियाँ

मेरी दृष्टि जाती है जहाँ तक

कम से कम तो वहाँ तक



अँधेरे में ही खिलता है चाँद

और आँख-मिचौली खेलती है

चाँदनी साथ अँधेरे के

मैं पपीहा सा राह तकता

आखिर कब दिखे स्वाति नक्षत्र



पर तुम तो गुम रहती हो

बत्तियों के बुझ जाने तक

रोशनियों के बीच

दृष्टि-ताल में तैरतीं



वो भी शरद-पूनो की रात

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