Monday, February 25, 2008

गुनगुनाहट 54

अब भी रखा है

पंख मेरे पास

जो रखा था तुमने कभी

उस किताब में

मेरे लिये



बिछुड़ गया है

पंख अपने ठौर से

फिर भी / मन को उड़ा ले जाता है

खोल देता है पृष्ठ

सुनिश्चित / उस किताब के

गुनगुनाती हो तुम जिसमें

मेरे लिये



पता नहीं / कहाँ थमा है मौसम वह

जो झंकृत कर दे तार

वाणी के

सुना सकूँ / वो कवितायें सभी

जो लिख रखीं हैं मैंने

तेरे लिये



परदेस साईबेरिया तक के पंछी

मिला करते हैं / याद से

फ़ासला तब जाता है बढ़ता

जब बढ़ते नहीं कदम / विश्वास के

मरीचिका का दौर है

बची ही नहीं अब / ज़मीन प्यार की

हमारे लिये

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