सुनना चाहता हूँ
इसीलिये नहीं बोलता
ज्यादा कुछ
इस तरह सुन पाता हूँ
सब कुछ
जो कुछ गया कहा
और वह कुछ भी
जो कुछ गया नहीं कहा
जब कही-अनकही
अनसुनी-सुनी कुछ बातें
लगती हैं चुभने
मन में
जैसे फँस गई हो
कोई फाँस तन में
तब जागते हैं
सोये हुये बुद्ध
तलाशने / अपना खोया हुआ
अधूरा सा अस्तित्व
भटकते हैं मेरे अंदर अवस्थित
सुप्त राम / ईसा / महावीर
पतझर में सहेजता हूँ
निर्वासन का दंश झेलते पत्तों को
ढूँढ़ता हूँ उनमें
अपने होने / न होने के प्रतिबिम्ब
जो कहाँ मिलते हैं
और कहीं भासते भी नहीं
कि हैं या हैं नहीं भी
हवा के झकोरों में
अलबत्ता दिख जाता है
बवण्डर सा उठा-फैला
क्षणजीवी गुरूर
सुना जाता है कुछ
बता जाता है कुछ चुपके से
समय रुकता नहीं कहीं भी
किसी के लिये कभी भी
गुनगुनाने लगती हैं कोरस में
बारिश की हर एक बूँद
तृृषित दिल-दिमाग की तृष्णा अमरजीवी
लगता फिर कभी-कभी
यक-बऱ्यक / चुपके से
उगा है कुछ दिमाग की घाटियों में
सरिता में आपाद-मस्तक डूबा
सूरज की तरह
दिल के सरोवर में खिला है सब कुछ
कविता में श्यामली कल्पना की गर्भनाल से जुड़ा
सरोज की तरह
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