एक नज़र
जरा इधर भी ज़नाब!
कतारों में चलती चींटियाँ
श्रम की लहर हो जैसे
कैसे रहता है मिल-जुल कर
यह भी तो है एक समाज
इनके संघर्षों का
है कोई जवाब
मुद्दतें गुजरीं
जख्म फिर भी है हरा
धुँध छटती ही नहीं
साफ नहीं कोई चेहरा
तिनका-तिनका बह रहा
कब बँधेगा सैलाब
बोझ बहुत ही भारी है
काली-दर्दीली रातों का
झिलमिल-झिलमिल रूप
चाँद और सितारों का
रात बुनती रहती है
जाने कितने ख्वाब
भगते-भगते सदियाँ बीतीं
पहुँचे कहाँ ठौर-ठिकाने
जाने कितने बादल रीते
गा नहीं पाये गीत पुराने
कर दी बंद दर्द की पोथी
हुआ हिसाब-बेहिसाब
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