Monday, February 25, 2008

नज़रें इनायत 22

एक नज़र

जरा इधर भी ज़नाब!



कतारों में चलती चींटियाँ

श्रम की लहर हो जैसे

कैसे रहता है मिल-जुल कर

यह भी तो है एक समाज

इनके संघर्षों का

है कोई जवाब



मुद्दतें गुजरीं

जख्म फिर भी है हरा

धुँध छटती ही नहीं

साफ नहीं कोई चेहरा

तिनका-तिनका बह रहा

कब बँधेगा सैलाब



बोझ बहुत ही भारी है

काली-दर्दीली रातों का

झिलमिल-झिलमिल रूप

चाँद और सितारों का

रात बुनती रहती है

जाने कितने ख्वाब



भगते-भगते सदियाँ बीतीं

पहुँचे कहाँ ठौर-ठिकाने

जाने कितने बादल रीते

गा नहीं पाये गीत पुराने

कर दी बंद दर्द की पोथी

हुआ हिसाब-बेहिसाब

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