Monday, February 25, 2008

शब्द नहीं ध्वनि हो तुम 1

शब्द नहीं

ध्वनि हो तुम मेरी कविता की

एक अनुगूँज

झंकृत करती उस कारा को

बंदी है जिसमें आत्मा मेरी



रक्ताक्त हैं अँगुलियाँ

खटखटाते द्वार अहर्निश

नहीं होते दर्शन

मैं चिर प्रतीक्षित

व्याकुलता हो गई तिरोहित

न कोई तृष्णा / न मरीचिका

न दौड़ता है मन

अंतरिक्ष के आर-पार

लगाती रहो टेर पर टेर

खुलेंगे एक दिन

इस पिंजर के द्वार

भला जी कर के भी

कौन सका है जी



अन्तराल में

निहारता रहता हूँ छवि

मन है अतिशय उदार

दिखला देता है ध्वनि विरल को

एक नहीं / कई क्षण / कई बार

मत छुओ मन को

हो जाओ मन के पार

नहीं शेष कोई आग्रह

नहीं उठती हिलकोरे ले चाह

कभी नहीं ढूँढी मैंने

कभी नहीं देखी तेरी राह

भला कौन कर सका

आँखें न हों गीलीं



मुटि्ठयों में कैसे हो बंद

शून्य का आलिंगन

अस्पर्श / अब नहीं बढ़ाता संताप

मौन / केवल मौन

अखण्ड चराचर में

निष्कम्प ज्योति सा यह सम्बन्ध

नहीं किसी ने

अब तक परिभाषा दी



शब्द नहीं

ध्वनि हो तुम मेरी कविता की

3 comments:

अनुपम अग्रवाल said...

निहारता रहता हूँ छवि
मन है अतिशय उदार

मत छुओ मन को
हो जाओ मन के पार

शब्द नहीं ध्वनि हो तुम
झंकृत हैं बहुत अच्छे विचार

विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन said...

achchhi kavitaayen. badhaai.

Rajesh Kumari said...

addbhut,bahut sundar.

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