हाँ / करता हूँ / मैं भी
चोरी कभी-कभी
कर लेता हूँ चोरी कभी-कभी
सुनसान रातों मे
टहलता मरोदा की सूनसान सड़कों पर
बातें करता ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से
नज़र बचाकर तारों की
तोड़ लेता हूँ कुछ फूल मोंगरे के
ताकि महका सकूँ
घर के उस कोने को
पाती है जहाँ विश्राम प्रिया मेरी
होता है यह अपराध
जाने-अनजाने में
मैंने किया सर्वदा
जब-जब अवसर मिला
तभी-तभी
हाँ / कर लेता हूँ / मैं भी
चोरी कभी-कभी
No comments:
Post a Comment