पलट रहा था पत्र तुम्हारे
जो तुमने कभी लिखे ही नहीं
फिर भी पढ़े गये द्वारा मेरे
आज की तरह / कई बार
लगभग रोजाना
थोड़े से शब्दों के ये
लम्बे-लम्बे पत्र
इतना बताते हैं अवश्य
कि पूरी ही नहीं होती बात
तुम्हारी-मेरी
और क्यों,
पढ़ता रहता हूँ पत्र तुम्हारे
इतनी-कितनी बार
खुशबू जम कर बैठी है इनमें
अपना पूरा कुनबा लेकर
साथ साँस सी फिरती है वह
मन की ज़ेबों से झाँकती
कुछ अनिश्चित-निश्चित समयों पर
और क्यों,
घूमती रहती हैं कल्पनायें
इस द्वार - उस द्वार
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