श्वाँस गंध से ही
जान जाता हूँ
हो चुकी उपस्थिति तुम्हारी
उतना ही गर्म हो जाता
वातायन हमारा
जितना शाम को गर्मा देते हैं
झिलमिलाते
अनन्त दूरियों से झाँकते / सितारे
तुम्हारी पगध्वनि से जान जाता हूँ
तय कर ली है
तुमने / कितनी दूरी
और एक अँगुली रख दी
ठीक वहीं पर
दर्द टीस रहा था जहाँ पर
तुमसे बेहतर भला और कौन जान सकता है
दर्द मुझे होता है कहाँ पर
मैं इतना भुरभुरा हो गया
अगरबत्ती की राख जैसा
जमाने ने जैसा चाहा / वैसा उड़ाया
धूल से भी गया-बीता
मैं संतुष्ट और प्रसन्न हूँ
अग्निद्वार से खरी / निकली
गंध बन फैल गया हूँ
हमारे वातायन में
तुम्हारी श्वाँस गंध को
समेटने और सहेजने के लिये
जल कर
राख होकर
अदृश्य होकर
बिखर गया हूँ चतुर्दिक
गंध होकर
1 comment:
Apnapan hi apne dard ko pahchan sakta hai dard aparibhashit hai ab tak sukh dard samkalik samvedna hain
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