क्या बताऊँ
शब्द नहीं हैं
अभिव्यक्त करने को
क्या था अहसास
जब टपके थे आँसू तुम्हारे
होठों पर मेरे
क्या बताऊँ
देह होती है गर्म
पर सर्द रातों में
गुनगुने लिहाफों में
कुछ अधिक गर्म
लगती है देह
जैसे कुनकुने पानी से
सिक रही है देह
दिल, दिमाग और आत्मा तक
क्या बताऊँ
भरपूर नज़र भर
देख लेने की कोशिश
कुछ और नजर नहीं आता
न दुनिया न दीन
खुद भी खोता जाता
लगता जैसे थम गया सब कुछ
स्थिर हो गई धरा
क्या बताऊँ
रसोईघर से आती
कई मिली-जुली गंध
फर्क साफ समझ में आता
घर में होने और न होने का
छलक जाता मन
घर में होने और न होने पर
भर लो मन
जीवन के रंगों से
सजा लो आल्बम
खट्टे-मीठे प्रसंगों के
स्मृतियों के आवरण में
साँझ जब खेवेंगे
जीवन की नैया
जब टहलेंगे साथ
या छूट जायेगा साथ
इस दुश्चिन्ता की व्याकुलता
क्या होगा अहसास
कैसे करूँ व्यक्त
शब्द नहीं हैं
अभी जीवन के पास
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